मैं ने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूं हो जाये
यूं न था मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-किमखाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए ख़ून में नहलाये हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

 
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Yunus Khan - September 10, 2007 at 11:10 PM

वाह तुम नाहक शीशे चुन चुनकर दामन से लगाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं क्यार आस लगाए बैठे हो ।
फैज़ अहमद फैज़ को सलाम

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