नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
न तन मे खून फराहम न अश्क आंखों में
नमाज़े-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही
यही बहुत है के सालिम है दिल का पैराहन
ये चाक-चाक गरेबान बेरफू ही सही
किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदेवालों
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही
गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वाद-ए-फर्दा से गुफ्तगू ही सही
दयारे-गैर में महरम अगर नहीं कोई
तो फ़ैज़ ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही
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बहार आई तो जैसे एक बार
लौट आए हैं फिर अदम से
वो ख्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिए थे
निखर गये हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं
जो तेरे उश्शाक का लहू हैं
उबल पड़े हैं अज़ाब सारे
मलाल-ए-अहवाल-ए-दोस्तां भी
खुमार-ए-आगोश-ए-महवशां भी
गुबार-ए-खातिर के बाब सारे
तेरे हमारेसवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गये हैं
नये सिरे से हिसाब सारे।
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गुलों में रंग भरे आज नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
कफस उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
कभी तो सुबह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुशकबार चले
बडा़ है दर्द का रिश्ता ये दिल गरीब सही
तुम्हारे नाम पे आएंगे गमगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिजरां
हमारे अशक तेरी आकबत संवार चले
मकाम 'फैज़' कोई राह में जँचा ही नहीं
जो कुए यार से निकले तो सुए दार चले
-फैज़ अहमद 'फैज़'
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