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इरफ़ान,
नैय्यरा नूर Posted on Thursday, September 13, 2007 Subscribe through Atom feed.
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फैज़ अहमद फैज़
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बह्ता है आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है.
शुक्रिया ! इसे यहाँ बाँटने के लिए