चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त

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चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर हैं हम
इक ज़रा और सितम सह लें तड़प लें रो लें
अपने अज़दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम

जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरे है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है
जिस में हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं

लेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के थोड़े हैं

अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हम को रहना है पर यूं ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बेनाम गरांबार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है

ये तेरी हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़.

 
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aarsee - September 20, 2007 at 9:52 AM

चंद रोज़ बस चंद रोज़---काश ऐसा हो पाता
अभी तो जाने कितने जनम,कितनी सदियों तक,
कितनी सर्द चाँदनी में,कितने गर्द राहों में इस गुबार के धुँधलके को झेलना है।

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